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दस गुरु

गुरप्रीत सिंह

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3664
आईएसबीएन :81-7182-302-5

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स्मरणीय सिक्ख गुरुओं के जीवन की संक्षिप्त झलक

DAS GURU

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारत वर्ष में गुरु और शिष्य की परम्परा बहुत प्राचीन है। गुरु का स्थान परमेश्वर से भी ऊँचा माना गया है। गुरु के द्वारा ही व्यक्ति को सांसारिक ज्ञान प्राप्त होता है और गुरु के द्वारा ही से उसे इस ज्ञान का बोध होता है कि किस प्रकार परमेश्वर को प्राप्त किया जा सके।
सिक्खों के प्रथम गुरु नानकदेव से लेकर दसवें गुरु गोविन्द सिंह जी तक का काल हिन्दू सभ्यता का उत्पीड़न काल था। एक ओर मुस्लिम आक्रान्ता हमारी प्राचीन सभ्यता को नष्ट करने में लगे हुए थे तो दूसरी ओर हिन्दू समाज, अवतारवाद, देवपूजा, मूर्ति पूजा, कर्मकांड, जाति-पांति एवं छुआ-छूत जैसी बुराइयों में लिप्त हो रहा था। ऐसे में सिक्ख गुरुओं के प्रकटन से समाज में भय और निराशा का वातावरण समाप्त हुआ। गुरुओं के उपदेशों ने अर्द्धमृत हिंदू जाति में नये प्राण फूँक दिये।

सिक्ख गुरुओं का जीवन-काल, वैराग्य और बलिदान का प्रति मूर्ति रहा है। आरम्भ में जो आदर्श, सिक्ख मत के आदि प्रवर्तक गुरु नानक जी ने स्थापित किया था। बाद में अन्य सिक्ख गुरुओं ने भी उसी आदर्श का निष्ठापूर्वक पालन किया। वे केवल परब्रह्म परमेश्वर को मानते थे। उनके लिए सारे संसार के मनुष्य एक परिवार के समान थे।

सभी सिक्ख गुरु हरिभक्ति में लीन परम संत थे। यद्यपि कालान्तर में कुछ गुरुओं को अधर्म, अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध खड्ग धारण करने के लिए भी विवश होना पड़ा था। किन्तु उनका ये वीर वेश भी उनके भक्त और सन्त के रूप का ही पूरक रहा, विरोधी नहीं। इन्हीं प्रातः स्मरणीय सिक्ख गुरुओं के जीवन की संक्षिप्त झलक, इस पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत की जा रही है। हमने पुस्तक को यथासाध्य रोचक और सुन्दर बनाने की कोशिश की है। आशा है हमारे कृपालू पाठकों को अवश्य पसन्द आएगी।

सिक्खों के दस गुरु

सृष्टि के आरम्भ से ही विधाता का एक नियम चला आ रहा है। जब भी संसार में अत्याचार और अन्याय अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं, किसी महामानव का जन्म होता है जो अपनी वाणी से और अपने कार्यों से सत्य के एक ऐसे दीप को प्रज्वलित करता है, जिसका आलोक अत्याचार, अन्याय और अधर्म के उस प्रगाढ़ तथा भयंकर अन्धकार को दूर करके दीन-दुःखियों और पीड़ितों का मार्गदर्शन करता है और अत्याचारियों, अन्यायियों और अधर्मियों को सत्य, धर्म, न्याय और दया के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है।

सिक्खों के दस गुरुओं ने धर्म के प्रचार एवं प्रसार के लिए जो अद्वितीय त्याग और बलिदान किया, उसका संसार में उदाहरण नहीं मिलता।
प्रस्तुत है सिक्खों के दस गुरुओं का अनुकरणीय संघर्षमय, त्याग एवं बलिदान से भरा जीवन चरित्र।

गुरु नानक देव


सृष्टि के आरम्भ से ही विधाता का एक नियम चला आ रहा है। जब भी संसार में अत्याचार और अन्याय अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाते हैं, किसी महामानव का जन्म होता है, जो अपनी वाणी से और अपने कार्यों से सत्य के एक ऐसे दीप को प्रज्वलित करता है, जिसका आलोक अत्याचार, अन्याय और अधर्म के उस प्रगाढ़ तथा भयंकर अन्धकार को दूर करके दीन-दुःखियों और अधर्मियों को सत्य, धर्म, न्याय और दया के मार्ग पर चलने के लिए विवश कर देता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं कहा था-

‘‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्यत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।
परित्राणाम साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे’’।

पन्द्रहवीं शताब्दी में भी भारत की वही स्थिति थी, जो द्वापर में महाभारत के युद्ध से पूर्व थी। मुसलमानों के निरन्तर होने वाले आक्रमणों से देश जर्जर हो चुका था। सारा देश, विशेष रूप से उत्तरी भारत, मुसलमानों की दासता की बेड़ियों में जकड़ा त्राहि-त्राहि कर रहा था। चारों ओर मुसलमान शासकों के अत्याचार, अन्याय और अनाचार की आंधियां चल रही थीं। हिन्दुओं को जबर्दस्ती मुसलमान बनाया जा रहा था। केवल हिन्दू धर्म ही नहीं, समूचा मानवधर्म विनाश के कगार पर जा खड़ा हुआ था।

अंधकार के उस युग में सन् 1469 के कार्तिक मास की पूर्णिमा को जब आकाश पर जगमगाता पूर्णिमा का चन्द्रमा अपनी धवल-दूधिया किरणों से प्रकृति पर फैले अन्धकार को दूर करने का प्रयास कर रहा था, मानव जाति में फैले अत्याचार, अन्याय, अधर्म और अनाचार के तिमिर को दूर करने के लिए पंजाब के एक छोटे से नगर तलवंडी में कालूराय बेदी की धर्मपत्नी तृप्ता देवी के गर्भ से एक शिशु ने जन्म लिया, जिसने बड़ा होकर अपना समुचा जीवन धार्मिक कट्टरता और धर्म के नाम पर होने वाले अत्याचारों और अनाचारों का विनाश करने के लिए समर्पित कर दिया।

कालूराय बेदी तलवंडी के शासक राय दुलार के प्रधान पटवारी थे। साथ ही अत्यधिक विश्वासपात्र भी। घर में धन-धान्य और चल-अचल सम्पत्ति की कोई कमी नहीं थी। इसलिए, शिशु का जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया। तृप्ता देवी ने पुत्री नानकी के जन्म के कई वर्ष बाद पुत्र को जन्म दिया था। इसलिए खुशी और भी दूनी हो गई थी। बहिन का नाम ननिहार में अधिक रहने के कारण नानकी पड़ गया था, इसलिए लोग शिशु को नानक के नाम से पुकारने लगे।
बचपन से ही बालक नानक की विशेषताएं स्पष्ट दिखाई देने लगी थीं। जब और साथी बच्चे खेल-कूद में लगे होते, बालक नानक किसी पेड़ के नीचे जा बैठते और आँखें मूंदकर ‘सत करतार’ का जाप करने लगते। और जब कोई बच्चा उनके पास आ बैठता तो उसे भी अपने साथ नाम सुमिरन में शामिल कर लेते।

पांच वर्ष की आयु में पिता ने उनकी पढ़ाई की व्यवस्था कर दी। वह पंडित गोपाल के पास जाने लगे। वह इतने कुशाग्र बुद्धि के थे कि कुछ ही दिनों में उन्होंने गोपाल पंडित को यह स्वीकार करने पर विवश कर दिया कि वह स्वयं जितना पढ़ा-लिखा है बालक नानक उससे कहीं अधिक विद्वान और ज्ञानवान है।
जब गोपाल पंडित ने मेहता कालूराय को उनके पुत्र की पढ़ाई सम्पूर्ण हो जाने के बारे में बताया तो उन्होंने बालक नानक को फारसी की शिक्षा प्राप्त करने के लिए मौलवी कुतबुद्दीन के पास भेज दिया। लेकिन मौलवी कुतबुद्दीन ने भी कुछ दिनों बाद यह घोषित कर दिया कि बालक नानक फारसी भाषा का विद्वान है।
बालक नानक की योग्यता और ज्ञान को देखकर पंडित गोपाल और मौलवी कुतबुद्दीन, दोनों ही हैरान रह गये थे।
जैसे ही गोपाल पंडित ने बालक नानक से कहा, ‘‘बोलो बेटा, ओउम्।’’

बालक नानक ने पूछा, ‘‘पंडित जी, ओउम् शब्द का अर्थ क्या है ?’’
एक नन्हे से बालक के मुंह से इतनी बड़ी बात सुनकर गोपाल पंडित आश्चर्य से उनका मुंह देखते रह गए।
मैं बताऊं पंडित जी ?’’ बालक नानक ने गोपाल पंडित को परेशान देखकर पूछा।
‘‘हां, बताओ।’’
बालक नानक ने एक शब्द के माध्यम से ओउम् शब्द का विस्तार से अर्थ बता दिया।
‘‘धन्य हो नानक तुम नहीं मैं तुम्हारा शिष्यं हूं’’ गोपाल पंडित ने बालक नानक की विद्वता के आगे सिर झुकाते हुए कहा।
ठीक यही स्थिति हुई मौलवी कुतबुद्दीन साहब की।
‘‘पढ़ो बेटा, अलिफ’’, मौलवी साहब ने पहले अक्षर पर उंगली रखकर कहा।
‘मौलवी साहब, अलिफ के मायने क्या हैं ?’’

बेचारे मौलवी कुतबुद्दीन खुद नहीं जानते थे कि अलिफ के मायने क्या हैं। नानक ने फारसी में एक शब्द के माध्यम से अलिफ की व्याख्या की, तो मौलवी कुतबुद्दीन ने मेहता कालूराय से कहा, ‘‘मेहता आपका बेटा तो खुद खुदा का रूप है। यह तो सारी दुनिया को पढ़ा सकता है।’’
बालक नानक के ज्ञान और विद्वता ने जब वह छोटे से थे, तभी से बड़े-बड़े विद्वानों को चकित करना आरम्भ कर दिया था।
उनके जीवन के आरम्भिक काल से ही ऐसी घटनाएं होने लगी थीं, जिन्हें देखकर लोग उन्हें विलक्षण और चमत्कारी बालक मानने लगे थे। लोगों के मन में यह विश्वास घर कर गया था कि भगवान ने ही नानक के रूप में अवतार लिया है।
उच्च जात के हिन्दुओं और विशेष रूप से ब्राह्मणों में यज्ञोपवीत संस्कार का अध्यधिक महत्त्व है। इसे बालक का दूसरा जन्म कहते हैं।

मेहता कालूराय ने अपने बेटे के यज्ञोपवीत संस्कार की तैयारी बड़ी धूम-धाम से की।
लेकिन जब गोपाल पंडित उन्हें यज्ञोपवीत पहनाने लगे तो उन्होंने कहा, ‘‘पंडित जी, धागे के इन टुकड़ों पर मेरा विश्वास नहीं है। धागे के कुछ टुकड़ों को गले में डाल लेने से किसी का मन कैसे पवित्र हो सकता है। मन तो पवित्र होता है, अच्छे आचरण से।’’

बालक नानक की यह बात सुनकर सब लोग दंग रह गए। बचपन से ही नानक तत्कालीन हिन्दू समाज में धर्म के नाम पर फैली कुरीतियां ढोंग और आडम्बरों के विरुद्ध थे। ब्राह्मणों ने अपना पेट भरने के लिए कुछ कह के धार्मिक अनुष्ठान करने आरम्भ कर दिए थे। जन्म से लेकर मृत्यु तक ही नहीं, मृत्यु के बाद भी वह लोगों का पीछा नहीं छोड़ते थे। जो लोग धन-सम्पन्न थे, वे किसी न किसी प्रकार ब्राह्मणों के इन धार्मिक अनुष्ठानों को पूरा कर देते थे। लेकिन अधिकांश जनता धर्म के नाम पर होने वाले इन अत्याचारों को बर्दाश्त नहीं कर पाती थी। नानक ने बचपन से ही इन कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठानी आरम्भ कर दी थी।

धार्मिक कुरीतियों के साथ-साथ धार्मिक कट्टरता और भेद-भाव का भी उन्होंने बचपन से ही विरोध करना आरम्भ कर दिया था। इसका जीता जागता उदाहरण है भाई मरदाना-उनका बचपन का साथी, जिसने मुस्लिम परिवार में जन्म लिया था, लेकिन बिना किसी भेद-भाव के वह जीवन भर नानकदेव के साथ रहा। देश में, विदेश में वह जहाँ कहीं भी गए मरदाना उनके साथ ही रहा। गुरु नानकदेव के विचारों और शिक्षाओं के प्रसार-प्रचार में भाई मरदाना का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। नानकदेव के शब्दों को भाई मरदाना ने अपने रबाब के संगीतमय सुरों के साथ जनमानस के अन्तर की गहराइयों तक पहुँचा दिया था।

बचपन से ही बालक नानक की चित्तवृत्ति अन्य बालाकों से भिन्न थी। वह हर समय खामोश रहते थे। जैसे किसी गहरे विचार में डूबे हों। पिता ने उनकी यह उदासीनता देखकर, उन्हें अपने पशुओं को चराने का काम सौंप दिया। वह मुंह अंधेरे ही पशुओं को लेकर जंगल में चले जाते और दिनभर पशुओं को चराने के बाद सांझ को घर लौटते।
कितने आश्चर्य की बात है, संसार में नानकदेव से पहले दो ऐसे महामानव हो चुके थे, जिन्होंने बचपन में पशुओं को चराने का काम किया था। योगीराज कृष्ण और हजरत ईसा मसीह। कृष्ण ने बचपन में गायें चराई थीं और ईसा ने बकरियां। ठीक उन्हीं की तरह नानकदेव ने भैंसें चराई थीं।
नानकदेव भैंसों को जंगल में ले जाकर चरने के लिए छोड़ देते और स्वयं किसी पेड़ के नीचे बैठकर ‘सत् करतार’ के ध्यान में डूब जाते। एक दिन वह एक पेड़ के नीचे ध्यान मग्न बैठे थे। बैठे-बैठे उन्हें नींद आ गई और वह पेड़ की छांव में लेट गए और उन्हें गहरी नींद आ गई।

तभी तलवंडी का शासक राय दुलार अपने घोड़े पर सवार उस ओर आ निकला। उसने देखा एक बालक पेड़ के नीचे सोया हुआ है और एक भयंकर नाग उसके सिरहाने बैठा अपने विशाल फन से उस बालक के चेहरे पर पड़ने वाली सूरज की तीखी-तपती किरणों को रोक रहा है। पेड़ की छांह जिस ओर हट जाती है, नाग उसी ओर अपने फन की छांव कर देता है।

यह दृश्य देखकर राय दुलार दंग रह गया। वह समझ गया कि नंगी जमीन पर सोया यह बालक कोई साधारण बालक नहीं है। बड़ा होकर या तो वह महान सम्राट बनेगा या महान सन्त।
जब बालक की नींद टूटी, तो नाग ने उसके चेहरे के ऊपर से अपना फन हटा दिया और चुपके से एक झाड़ी में सरक गया।
पास जाकर राय दुलार ने देखा, वह बालक और कोई नहीं उसी के प्रधान पटवारी मेहता कालू का बेटा नानक है।
बस, उसी दिन से उसके मन में बालक नानक के प्रति अपार श्रद्धा और भक्ति के बीच अंकुरित हो गए।

राय दुलार के मुंह से जिसने भी यह घटना सुनी आश्चर्य-चकित रह गया। बालक नानक के प्रति नगर निवासियों के मन में यह धारणा दृढ़ हो गई कि निःसंदेह यह बालक चमत्कारी बालक है।
एक दिन नानकदेव अपने पशुओं को चराने ले गए। उन्होंने रोजाना की तरह, पशुओं को चरने के लिए छोड़ दिया और स्वयं एक पेड़ के नीचे जा बैठे और ध्यानमग्न हो गए। पास ही एक किसान का खेत था। फसल लहलहा रही थी। उसे देख पशु उसी खेत में घुस गए। उन्होंने खूब डट कर खाया। उनके इधर-उधर आने जाने से खेत के पौधे कुचल गये। और पेट भर जाने के बाद सारे पशु उसी खेत में बैठ कर जुगाली करने लगे।
अचानक उस खेत का मालिक किसान उधर आ निकला। उसने देखा, पशुओं ने सारी फसल खाने के बाद रौंद डाली है और उसी में जमे बैठे हैं। उसने पेड़ के नीचे ध्यानमग्न बैठे बालक नानक को पकड़ लिया और उन्हें रायदुलार के पास ले गया।

‘‘क्या बात है ? तुम नानक को पकड़ कर क्यों लाए हो ?’’ राय दुलार ने पूछा।
‘‘हुजूर, इसके पशुओं ने मेरे खेत की सारी फसल चौपट कर दी है। अब उसमें आइन्दा एक दाना भी नहीं होगा। मुझे इसके पिता से हरजाना दिलाया जाए।’’ किसान ने कहा।
राय दुलार ने पास ही बैठे मेहता कालू से कहा कि वह उस किसान का जितना भी नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई करे।
खेत में होने वाले नुकसान का अन्दाज लगाने के लिए राय दुलार ने अपने कुछ आदमियों को खेत में भेज दिया।
किसान के साथ जब राय दुलार के भेजे हुए आदमी खेत पर पहुंचे तो किसान के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। खेत का एक भी पौधा टूटा नहीं था। सारा खेत पहले से भी कहीं अधिक लहलहा रहा था।

राय दुलार की अप्रसन्नता से डरकर किसान घर भाग गया। राय दुलार के भेजे आदमियों ने जब उसे लौटकर बताया कि खेत में रत्तीभर भी नुकसान नहीं हुआ है और खेत में खड़ी फसल ज्यों की त्यों हरी भरी है और लहलहा रही है, तो राय दुलार और अन्य सभी लोग हैरान रह गए। राय दुलार के मन में बालक नानक के प्रति जो श्रद्धा और सम्मान था और भी बढ़ गया।
उस दिन की घटना के बाद मेहता कालूराय ने अपने बेटे को पशुओं को चराने के लिए जंगल में भेजना बन्द कर दिया। नानकदेव घर में ही रहने लगे। लेकिन इस तरह, जैसे घर में रहते हुए भी वह घर में न हों। वह हर समय अपने विचारों में डूबे रहते थे।
 
अपने इकलौते बेटे को इस तरह उदास देखकर मेहता कालूराय ने नानक को बीस रुपए दिए और उनके बचपन के मित्र, बाला को बुलाकर कहा, ‘‘बेटा ! नानक, तुम बाला के साथ शहर चले जाओ और कोई व्यापार करो। लेकिन जो भी व्यापार करो, खरा और सच्चा हो। धीरे-धीरे तुम व्यापार करना सीख जाओगे।’’
पिता की आज्ञानुसार नानकदेव भाई बाला के साथ शहर की ओर चल पड़े। जब वह शहर के निकट पहुंचे तो उन्हें जंगल में कई साधु-संन्यासी एक स्थान पर जय-जय करते दिखाई दिए। साधु-सत्संग के लोभी नानकदेव ने उन्हें प्रणाम किया। वे साधु-संन्यासी कई दिन के भूखे थे। उन्होंने अपनी यह समस्या नानकदेव के सामने रखी, तो उन्हें कई दिन से भूखे साधु –संन्यासियों पर दया आ गई।

‘‘पिताजी ने कहा था, जो भी व्यापार करना, खरा और सच्चा करना। भूखे इनसानों की भूख मिटाने से अच्छा-सच्चा और खरा व्यापार और क्या हो सकता है।’’ नानकदेव ने मन ही मन कहा और फिर साधु-संन्यासियों को आश्वासन देकर भाई बाला के साथ शहर चले गये।
शहर से खाने-पीने का सामान लाकर उन्होंने भोजन बनाने में भूखे साधु-संन्यासियों की सहायता की। जब वे लोग भरपेट भोजन कर चुके तो नानक देव ने देखा, पिता ने व्यापार के लिए जो पूंजी दी थी, समाप्त हो चुकी है।
‘‘बिना पूंजी के कोई भी व्यापार किया नहीं जा सकता’’, उन्होंने भाई बाले से कहा और पलट कर अपने गांव की ओर चल दिए।

पुत्र को इतनी जल्दी लौट आया देखकर मेहता कालूराय को हैरानी हुई। उन्होंने बेटे से इतनी जल्दी लौट आने का कारण पूछा तो बेटे ने कहा, ‘‘पिताजी, आपने ही तो कहा था कि जो भी व्यापार करना सच्चा और खरा करना। मेरे विचार से भूखों को भोजन कराने से अधिक सच्चा और खरा व्यापार और क्या हो सकता था। उन भूखें इनसानों का पेट भरने में आपकी दी हुई सारी पूंजी खत्म हो गई। इसलिए मैं घर लौट आया हूं।’’
मेहता कालूराय को बेटे की इस हरकत पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने दो चार चांटे बेटे के गाल पर जड़ दिए।
इस बात का पता राय दुलार को लगा तो उसने मेहता कालूराय को बुलाया, अपनी अप्रसन्नता प्रकट की। और बीस रुपए उन्हें देते हुए कहा, ‘‘आज से नानक मेरा है। यह तुम्हारा जो भी नुकसान करे मुझसे ले लेना। लेकिन नानक को कुछ मत कहना।’’

कहते-कहते रायदुलार की आवाज भर्रा उठी। उनकी आंखों से आंसू बहने लगे।
मेहता कालू की दो ही सन्तानें थीं-पुत्र नानक और उनसे कई वर्ष बड़ी पुत्री नानकी। नानकी का विवाह हो चुका था। उसके पति जयराम सुलतानपुर के नवाब लोदी के यहाँ एक उच्च पद पर कार्य करते थे। सुलतानपुर कपूरथला के पास बेई नदी के किनारे बसा एक सुन्दर नगर था।

मेहता कालूराय ने पुत्र की उदासीनता देखकर उन्हें अपनी बेटी नानकी के पास सुलतानपुर भेज दिया। नानकी अपने छोटे भाई को बेहद प्यार करती थी। साथ ही वह यह भी जानती थी कि उसका भाई कोई साधारण इनसान नहीं है। पिता कालू मेहता का विचार था कि इतने बड़े शहर में सबसे अधिक प्यार करने वाली बहिन के पास रहने पर, नानकदेव की यह उदासी दूर हो जायेगी। वातावरण बदलने पर, उनके स्वभाव में भी परिवर्तन आ जायेगा। दुनियादारी के कामों में दिलचस्पी पैदा हो जायेगी। किसी कारोबार के प्रति रुचि जाग जायेगी।

नानकी के पति जयराम बहुत ही सज्जन और ईमानदार थे। इसलिए नवाब लोदी उनका बहुत सम्मान करते थे। जब नानक को सुलतानपुर में रहते हुए कुछ दिन बीत गए तो जयराम ने नानकी से सलाह-मशवरा करने के बाद नानक को नवाब के महल में नौकरी दिलवा दी। नवाब ने उन्हें मोदी खाने अर्थात शाही भंडारघर का इंचार्ज नियुक्त कर दिया।

नानक देव सुबह होते ही मोदीखाने में आ बैठते और गई रात तक काम करते रहते। उनके बहनोई जयराम और बहिन नानकी को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। साथ ही सन्तोष भी हुआ कि अब नानक काम-काज में रुचि लेने लगे हैं।


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